Friday 10 March 2017

पत्रकारिता को विचारधारा का भोंपू तो मत बनाइए...

पत्रकारिता में जब निष्पक्षता के बजाय वैचारिक दुराग्रह हावी होता है तो यही होता है। जिस बीजेपी को यूपी में तीसरे नंबर पर आता बताया जाता है, वह तीन चौथाई सीटें लाती दिखती है और तीन चौथाई मुसलमानों वाली देवबंद सीट में भाजपा 30,000 वोटों से जीत जाती है तब इस दुराग्रह की दुर्गति हो जाती है। जो पत्रकारिता को विचारधारा का भोंपू बताते हैं, वही पत्रकारिता के असली राहुल गांधी हैं, पत्रकारिता को डुबो रहे हैं। जब मैं यह लिख रहा हूं तो चैनल भाजपा को यूपी में 403 में से 311 सीटें मिलती दिखा रहे हैं। आखिरी आंकड़ा क्या होगा, मुझे नहीं पता, लेकिन 280 के करीब होगा, यह तो माना ही जा सकता है। कुल मिलाकर इसे 311 जोड़ी जूते समझिए, जो उनके मुंह पर पड़ रहे हैं, जो सब कुछ जानने समझने के बाद भी एजेंडा के चलते भाजपा को तीसरे नंबर पर आता बता-दिखा रहे थे।

जी हां, वे पत्रकार ही हैं, मेरे हमपेशा। ये वही पत्रकार हैं, जो दफ्तरों में, टीवी चैनलों में, अखबरों की सुर्खियों में बीजेपी को बुरी तरह हारता बता रहे थे। कई लोग बसपा का “अंडरकरंट” बता रहे थे। जब हम नॉन जाटव, नॉन यादव की बात करते थे तो मखौल उड़ाया जाता था। बीजेपी को कुछ मानने के लिए तैयार ही नहीं थे, जबकि यूपी की गलियां कुछ और ही बोल रही थीं। धृतराष्ट्र की तरह आंखें मूंदे बैठ गए थे। और ये धृतराष्ट्र 25 साल के भी थे और 75 साल के भी। यहां तक कि 9 मार्च को एक्जिट पोल में बीजेपी की जय-जय होते ही उन्होंने पोल का भी मखौल उड़ाना शुरू कर दिया, उसकी बखियां उधेड़ डालीं। यानी “मेरे मन की नहीं, ऐसी बात क्यों कही?” लेकिन आखिर में उनके साथ वही हुआ है, जो 2014 में हुआ था।

2014 में तमाम बड़े हिंदी/अंग्रेजी अखबारों के रिपोर्टर यूपी जीत रहे थे और लौटकर लिख रहे थे कि बीजेपी के लिए कुछ नहीं है। डेस्क पर होने के बावजूद यूपी/बिहार/हरियाणा में अपने सू़त्रों से बात कर मैं दफ्तर में लगातार कह रहा था कि बीजेपी जबरदस्त तरीके से जीत रही है (जिस पर कई लोग प्रचारक कहकर मखौल भी उड़ा रहे थे), लेकिन 19 मई को हंसने का आखिरी मौका मुझे मिला।

इस बार भी मैंने अपने जानने वालों को यूपी में बीजेपी के लिए 200+ की बात कही थी और अपना मखौल उड़वाया था। लेकिन आज एक बार फिर मुझे ही हंसने का मौका मिल रहा है। पंजाब में मैं गलत साबित हो रहा हूं, जहां मैंने कांग्रेस को अव्वल बताया था, लेकिन आम आदमी पार्टी की ऐसी दुर्गति नहीं सोची थी। वहां आम आदमी पार्टी तीसरे नंबर पर आने के लिए बीजेपी+ से होड़ कर रही है।

खैर, यहां मुद्दा यह है कि पत्रकार दोनों मौकों पर गलत साबित क्यों हुए? हालांकि बिहार में वे सही साबित हुए, जहां बीजेपी के हारने की बात वे कह रहे थे और मैं बीजेपी के जीतने की नहीं, लेकिन पहले से बेहतर करने की बात कह रहा था।

गौर करेंगे तो देखेंगे कि वे बिहार में सही साबित नहीं हुए। असल में उनकी एक ही लीक थी - “बीजेपी हारेगी और हारेगी।” बिहार में यह लीक सही साबित हुई, यह इत्तफाक ही रहा।

इसके दो मतलब हैं - पहला, रिपोर्टर हवा को भांपने में नाकाम रहे यानी पत्रकार के तौर पर उन्हें वह नहीं आता, जो आना चाहिए। दूसरा, उन्हें बीजेपी की जीत नजर आ रही थी, लेकिन जानबूझकर वे उसे नकारते रहे।
पहला मतलब है तो उन्हें मेहनत करने की, खुद को मांझने की जरूरत है ताकि वे नब्ज भांपने लायक धार अपने भीतर ला सकें। लेकिन दूसरा मतलब है तो वह खतरनाक है। क्या खतरा है, इसकी बात आगे करेंगे। पहले यह देखते हैं कि उनके नकारने की वजहें क्या हो सकती हैं? दो वजहें हो सकती हैं - पहली, बीजेपी के विरोधी खेमे से उन्हें हवा बदलने, वोटरों के मन में भ्रम पैदा करने का ठेका मिला था। दूसरी, चूंकि वे स्वयं धुर बीजेपी विरोधी हैं, इसलिए सब कुछ समझकर भी सच लिखने को तैयार नहीं थे (यह सच हो भी सकता है क्योंकि 2014 में कई पत्रकारों ने निजी बातचीत में मुझसे बीजेपी की हवा होने की बात कबूली थी, लेकिन अपनी रिपोर्ट में या सोशल मीडिया पर वह इसके उलट लिख रहे थे)।

पहली वजह है तो हम और आप कुछ नहीं कर सकते क्योंकि बिक कोई भी सकता है, कभी भी सकता है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी के लिए पत्रकारों का मेहनत करना और उसकी जीत के बाद उन्हें रेवड़ी मिलना हमें-आप को सभी को पता है। ऐसे पत्रकार दलाल कहलाते हैं और दलाल किसी भी पेशे में हो सकते हैं।

लेकिन अगर दूसरी वजह है और महज वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण रिपोर्टर जनता को सच बताने से कतरा रहा है। तो स्थिति अधिक खतरनाक है क्योंकि इसका मतलब है कि आप पत्रकारिता करने नहीं आए हैं बल्कि विचारधारा का प्रचार करने आए हैं। इसका मतलब है कि राजनीति ही नहीं, बाकी मामलों में भी आप विचारधारा को आगे रखेंगे, देश की कीमत पर भी। सैफुल्ला, साईबाबा, गुरमेहर मामलों में हम ऐसा देख भी रहे हैं। भक्त वे नहीं हैं

ऐसा है तो शर्म कीजिए खुद पर। कम से कम उस पत्रकारिता को तो छोड़ दीजिए, जिस पर आम लोग अब भी भरोसा करते हैं। उसकी विश्वसनीयता में पलीता मत लगाइए। वरना उसका खमियाजा उस पत्रकारिता को भुगतना पड़ेगा, जिसमें कुछ युवा शिद्दत और जज्बे के साथ आते हैं। 

Monday 27 February 2017

कौशल विकास योजना से बदल रही ज़िंदगी

सोनी बेन गुजरात के कच्छ जिले की रहने वाली हैं। लखपथ तालुका के न्यू जुलराई गांव की सोनी बेन पशुपालन के जरिये अपने दो बेटों और दो बेटियों को पालती आई हैं। एक वक्त था, जब 2 भैंसों और दो गायों का दूध बेचकर उन्हें हर महीने 4,000 से 5,000 रुपये मिल पाते थे और गुजारा भी मुश्किल होता था। उसके बाद उन्हें प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना का पता चला और कच्छ क्राफ्ट एसोसिएशन की मदद से उन्होंने पशुपालन में कौशल प्रशिक्षण हासिल किया। राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (एनएसडीसी) की वेबसाइट पर सोनी बेन खुद बताती हैं कि प्रशिक्षण में उन्हें मवेशी को खिलाने, उन्हें कम पानी देकर ज्यादा वसायुक्त दूध प्राप्त करने, ज्यादा सफाई के साथ दूध दुहने, मवेशियों का घरेलू इलाज करने के ऐसे गुर हासिल हुए, जो उन्हें पहले नहीं पता थे। पिछले साल यह प्रशिक्षण हासिल करने के बाद उन्होंने बैंक से 30,000 रुपये का कर्ज लेकर एक भैंस खरीदी। अब उनके पास तीन भैंस और दो गाय हैं और उनकी महीने की आमदनी भी बढ़कर 7,000 रुपये हो गई है। उन्होंने महज एक भैंस जोड़ी और उनकी आमदनी में 40 फीसदी का इजाफा हो गया क्योंकि प्रशिक्षण में सीखे गुर आजमाने से उन्हें पुराने पशुओं से भी ज्यादा और बेहतर दूध मिल रहा है।

बदल रहे हैं हालात
सोनी बेन इकलौती नहीं हैं, जिनकी जिंदगी प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना ने बेहतर बनाई है। देश के कमोबेश हरेक हिस्से में पिछले तकरीबन एक-डेढ़ साल में युवाओं से लेकर अधेड़ों तक लाखों लोगों को रोजगार लायक बनने का मौका मिला है। केवल मौका ही नहीं मिला है बल्कि रोजगार भी मिले हैं। इसकी वजह केवल और केवल प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना है, जिसे नरेंद्र मोदी सरकार ने पिछले साल लागू किया है।

बदला काम करने का तरीका
हालांकि ऐसा नहीं है कि इससे पहले इस तरह की योजना नहीं थी। पिछली सरकार के पास भी ऐसी ही योजना थी, लेकिन वह योजना इतनी व्यापक नहीं थी और न ही उसे कुछ विशेष उद्योगों पर केंद्रित किया गया था। इसके अलावा उसमें उन संस्थाओं अथवा केंद्रों की निगरानी की कोई व्यवस्था नहीं थी, जिन्हें प्रशिक्षण देने के लिए धन दिया जाता था। जवाबदेही नहीं होने के कारण अक्सर प्रशिक्षुओं को आधा-अधूरा प्रशिक्षण मिलता था और बाद में रोजगार के लिए उन्हें भटकना पड़ता था। लेकिन इस सरकार ने इन केंद्रों की जवाबदेही भी तय की है। अब इन केंद्रों को उनके प्रदर्शन के आधार पर ही रकम दी जाती है और चरणबद्ध तरीके से दी जाती है। सख्त निगरानी होने के कारण प्रशिक्षुओं को भी अच्छी तरह से सिखाया जाता है और सबसे बड़ी बात यह है कि लघु अवधि के कौशल पाठ्यक्रमों को पूरी तरह रोजगारोन्मुखी बनाया गया है और उन्हें उद्योगों की मौजूदा जरूरतों के लिहाज से ढाला गया है।

हुनर सीखना बिल्कुल आसान
प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना के तहत सरकार विशेष रूप से युवाओं को उद्योगों के हिसाब से और रोजगार देने के लायक प्रशिक्षण देना चाहती है। इसमें प्रशिक्षण पाने वालों को पाठ्यक्रम पूरा होने पर परीक्षा देनी होगी, जिसमें कामयाब होने वालों को वित्तीय पुरस्कार भी मिलता है और सरकार का प्रमाणपत्र भी। यह प्रमाणपत्र रोजगार के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण है। इस योजना के तहत प्रशिक्षण पाना भी बहुत आसान है। सबसे पहले अपने राज्य में इसका प्रशिक्षण केंद्र तलाशना होता है, जिनकी सूची इस योजना की आधिकारिक वेबसाइट पर मौजूद रहती है। उस सूची में यह भी लिखा है कि किस केंद्र पर कौन-कौन से प्रशिक्षण दिए जाते हैं। अभ्यर्थी को चुनना होगा कि वह किस तरह का रोजगार चाहता है और उसके मुताबिक पाठ्यक्रम में पंजीकरण कराने के बाद उसका प्रशिक्षण शुरू हो जाता है।

हर हुनर की सरकार को फिकर
सरकार ने इसके लिए करीब 30 पाठ्यक्रम तय किए हैं, जो रबर, कृषि, वाहन, सौंदर्य, निर्माण, खाद्य, इलेक्ट्रॉनिक्स, बिजली, खनन, दस्तकारी, खेल, दूरसंचार और पर्यटन आदि से जुड़े हुए हैं। ये प्रशिक्षण पाठ्यक्रम बेहद तार्किक और व्यावहारिक भी हैं और आज के हालात को ध्यान में रखते हुए ही बनाए गए हैं। मिसाल के तौर पर खाद्य प्रसंस्करण के पाठ्यक्रम को ही देखते हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में यह पाठ्यक्रम बहुत काम का है क्योंकि इन राज्यों में उद्योग अपेक्षाकृत कम लगते हैं, लेकिन खेती बहुत ज्यादा होती है। अगर यहां के किसान अपने परिवार में किसी को ऐसा पाठ्यक्रम कराते हैं तो खेती के अलावा उनके पास वैकल्पिक धंधा करने का मौका भी होगा। बैंक से कर्ज लेकर छोटी सी इकाई भी लगा दी गई तो किसान अपने ही खेतों-बगीजों के अनाज, फल, सब्जियों से अचार, चटनी, मुरब्बे बनाकर बेचेंगे और केवल अनाज और सब्जियों की बिक्री के मुकाबले कई गुना मुनाफा हासिल कर पाएंगे। उत्तर प्रदेश के भीतर ही केंद्र और राज्य दोनों सरकारें आजकल बुनियादी ढांचे पर जोर दे रही हैं। अगर निर्माण क्षेत्र से जुड़े कम अवधि के पाठ्यक्रमों में प्रशिक्षण लिया जाता है तो रोजगार फौरन हासिल हो जाना लगभग तय है।

हुनर भी, रोजगार भी
बेरोजगारी यूं भी सवा अरब से अधिक आबादी वाले भारत के लिए बड़ी परेशानी रही है। पिछली सरकारों के सामने भी यह दिक्कत थी, लेकिन मोदी सरकार ने निश्चित रूप से इससे निपटने का अलग और सही तरीका अपनाया है। कहा भी जाता है कि अगर हाथ में हुनर हो तो भूखा नहीं सोना पड़ता। इसी जुमले पर अमल करते हुए सरकार ऐसा प्रशिक्षण दे रही है, जो पूरी तरह से रोजगार दिलाने वाला है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद इस बारे में कितने गंभीर हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रशिक्षण का लक्ष्य उन्होंने महज 1 साल में कई गुना बढ़ा दिया है। शुरुआत में इसके तहत 24 लाख लोगों को प्रशिक्षण देने की बात कही गई थी, लेकिन इसी साल 13 जुलाई को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस योजना को नए रूप में मंजूरी दी। अब 2020 तक इसके तहत 1 करोड़ लोगों को कौशल सिखाने का फैसला सरकार ने किया है। इस पर वह 12,000 करोड़ रुपये खर्च करने जा रही है। इसमें नए लोगों को तो प्रशिक्षण दिया ही जाएगा, जो लोग पहले से प्रशिक्षण हासिल कर चुके हैं, उन्हें भी सरकार का प्रमाणपत्र मिलेगा, जो नौकरी हासिल करने में खासा मददगार होगा।
उत्तर प्रदेश में रोजगार की हालत क्या है, इसका अंदाजा उसी वक्त मिल गया था, जब मौजूदा राज्य सरकार ने सत्ता में आने के बाद बेरोजगारी भत्ता देने का ऐलान किया था। उस वक्त इसके लिए 30 से 40 साल के बीच की उम्र और 36,000 रुपये सालाना या उससे कम आय को पैमाना बनाया गया था। इसके बावजूद लाखों की तादाद में लोग पंजीकरण कराने आए थे। इसका मतलब है कि उत्तर प्रदेश में 30 से 40 साल उम्र वाले लाखों लोग हर महीने 3,000 रुपये भी नहीं कमा पाते! यह वाकई शोचनीय स्थिति है। लोकसभा चुनावों में करारी हार के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने ये भत्ते बंद कर दिए थे, लेकिन खबरों के मुताबिक राज्य सरकार विधानसभा चुनाव नजदीक आने पर एक बार फिर इसकी बात कर रही है। खुद उसके अधिकारी मान रहे हैं कि 25 से 40 साल के करीब 9 लाख लोग बेरोजगार हैं और हर महीने 3,000 रुपये भी नहीं कमा पाते। ऐसी सूरत में क्या बेहतर है? 1,000 रुपये महीने का भत्ता पाना या 2-3 महीने के भीतर कोई हुनर सीखकर, अपने पैरों पर खड़े होकर इससे कई गुना अधिक रकम हर महीने कमाना? निश्चित रूप से हुनर सीखने का विकल्प ही युवाओं की पहली पसंद होना चाहिए।


(परिवर्तन की ओर” पुस्तक में प्रकाशित लेख)