पत्रकारिता में जब निष्पक्षता के बजाय वैचारिक दुराग्रह हावी होता है तो यही होता है। जिस बीजेपी को यूपी में तीसरे नंबर पर आता बताया जाता है, वह तीन चौथाई सीटें लाती दिखती है और तीन चौथाई मुसलमानों वाली देवबंद सीट में भाजपा 30,000 वोटों से जीत जाती है तब इस दुराग्रह की दुर्गति हो जाती है। जो पत्रकारिता को विचारधारा का भोंपू बताते हैं, वही पत्रकारिता के असली राहुल गांधी हैं, पत्रकारिता को डुबो रहे हैं। जब मैं यह लिख रहा हूं तो चैनल भाजपा को यूपी में 403 में से 311 सीटें मिलती दिखा रहे हैं। आखिरी आंकड़ा क्या होगा, मुझे नहीं पता, लेकिन 280 के करीब होगा, यह तो माना ही जा सकता है। कुल मिलाकर इसे 311 जोड़ी जूते समझिए, जो उनके मुंह पर पड़ रहे हैं, जो सब कुछ जानने समझने के बाद भी एजेंडा के चलते भाजपा को तीसरे नंबर पर आता बता-दिखा रहे थे।
जी हां, वे पत्रकार ही हैं, मेरे हमपेशा। ये वही पत्रकार हैं, जो दफ्तरों में, टीवी चैनलों में, अखबरों की सुर्खियों में बीजेपी को बुरी तरह हारता बता रहे थे। कई लोग बसपा का “अंडरकरंट” बता रहे थे। जब हम नॉन जाटव, नॉन यादव की बात करते थे तो मखौल उड़ाया जाता था। बीजेपी को कुछ मानने के लिए तैयार ही नहीं थे, जबकि यूपी की गलियां कुछ और ही बोल रही थीं। धृतराष्ट्र की तरह आंखें मूंदे बैठ गए थे। और ये धृतराष्ट्र 25 साल के भी थे और 75 साल के भी। यहां तक कि 9 मार्च को एक्जिट पोल में बीजेपी की जय-जय होते ही उन्होंने पोल का भी मखौल उड़ाना शुरू कर दिया, उसकी बखियां उधेड़ डालीं। यानी “मेरे मन की नहीं, ऐसी बात क्यों कही?” लेकिन आखिर में उनके साथ वही हुआ है, जो 2014 में हुआ था।
2014 में तमाम बड़े हिंदी/अंग्रेजी अखबारों के रिपोर्टर यूपी जीत रहे थे और लौटकर लिख रहे थे कि बीजेपी के लिए कुछ नहीं है। डेस्क पर होने के बावजूद यूपी/बिहार/हरियाणा में अपने सू़त्रों से बात कर मैं दफ्तर में लगातार कह रहा था कि बीजेपी जबरदस्त तरीके से जीत रही है (जिस पर कई लोग प्रचारक कहकर मखौल भी उड़ा रहे थे), लेकिन 19 मई को हंसने का आखिरी मौका मुझे मिला।
इस बार भी मैंने अपने जानने वालों को यूपी में बीजेपी के लिए 200+ की बात कही थी और अपना मखौल उड़वाया था। लेकिन आज एक बार फिर मुझे ही हंसने का मौका मिल रहा है। पंजाब में मैं गलत साबित हो रहा हूं, जहां मैंने कांग्रेस को अव्वल बताया था, लेकिन आम आदमी पार्टी की ऐसी दुर्गति नहीं सोची थी। वहां आम आदमी पार्टी तीसरे नंबर पर आने के लिए बीजेपी+ से होड़ कर रही है।
खैर, यहां मुद्दा यह है कि पत्रकार दोनों मौकों पर गलत साबित क्यों हुए? हालांकि बिहार में वे सही साबित हुए, जहां बीजेपी के हारने की बात वे कह रहे थे और मैं बीजेपी के जीतने की नहीं, लेकिन पहले से बेहतर करने की बात कह रहा था।
गौर करेंगे तो देखेंगे कि वे बिहार में सही साबित नहीं हुए। असल में उनकी एक ही लीक थी - “बीजेपी हारेगी और हारेगी।” बिहार में यह लीक सही साबित हुई, यह इत्तफाक ही रहा।
इसके दो मतलब हैं - पहला, रिपोर्टर हवा को भांपने में नाकाम रहे यानी पत्रकार के तौर पर उन्हें वह नहीं आता, जो आना चाहिए। दूसरा, उन्हें बीजेपी की जीत नजर आ रही थी, लेकिन जानबूझकर वे उसे नकारते रहे।
पहला मतलब है तो उन्हें मेहनत करने की, खुद को मांझने की जरूरत है ताकि वे नब्ज भांपने लायक धार अपने भीतर ला सकें। लेकिन दूसरा मतलब है तो वह खतरनाक है। क्या खतरा है, इसकी बात आगे करेंगे। पहले यह देखते हैं कि उनके नकारने की वजहें क्या हो सकती हैं? दो वजहें हो सकती हैं - पहली, बीजेपी के विरोधी खेमे से उन्हें हवा बदलने, वोटरों के मन में भ्रम पैदा करने का ठेका मिला था। दूसरी, चूंकि वे स्वयं धुर बीजेपी विरोधी हैं, इसलिए सब कुछ समझकर भी सच लिखने को तैयार नहीं थे (यह सच हो भी सकता है क्योंकि 2014 में कई पत्रकारों ने निजी बातचीत में मुझसे बीजेपी की हवा होने की बात कबूली थी, लेकिन अपनी रिपोर्ट में या सोशल मीडिया पर वह इसके उलट लिख रहे थे)।
पहली वजह है तो हम और आप कुछ नहीं कर सकते क्योंकि बिक कोई भी सकता है, कभी भी सकता है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी के लिए पत्रकारों का मेहनत करना और उसकी जीत के बाद उन्हें रेवड़ी मिलना हमें-आप को सभी को पता है। ऐसे पत्रकार दलाल कहलाते हैं और दलाल किसी भी पेशे में हो सकते हैं।
लेकिन अगर दूसरी वजह है और महज वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण रिपोर्टर जनता को सच बताने से कतरा रहा है। तो स्थिति अधिक खतरनाक है क्योंकि इसका मतलब है कि आप पत्रकारिता करने नहीं आए हैं बल्कि विचारधारा का प्रचार करने आए हैं। इसका मतलब है कि राजनीति ही नहीं, बाकी मामलों में भी आप विचारधारा को आगे रखेंगे, देश की कीमत पर भी। सैफुल्ला, साईबाबा, गुरमेहर मामलों में हम ऐसा देख भी रहे हैं। भक्त वे नहीं हैं
ऐसा है तो शर्म कीजिए खुद पर। कम से कम उस पत्रकारिता को तो छोड़ दीजिए, जिस पर आम लोग अब भी भरोसा करते हैं। उसकी विश्वसनीयता में पलीता मत लगाइए। वरना उसका खमियाजा उस पत्रकारिता को भुगतना पड़ेगा, जिसमें कुछ युवा शिद्दत और जज्बे के साथ आते हैं।
जी हां, वे पत्रकार ही हैं, मेरे हमपेशा। ये वही पत्रकार हैं, जो दफ्तरों में, टीवी चैनलों में, अखबरों की सुर्खियों में बीजेपी को बुरी तरह हारता बता रहे थे। कई लोग बसपा का “अंडरकरंट” बता रहे थे। जब हम नॉन जाटव, नॉन यादव की बात करते थे तो मखौल उड़ाया जाता था। बीजेपी को कुछ मानने के लिए तैयार ही नहीं थे, जबकि यूपी की गलियां कुछ और ही बोल रही थीं। धृतराष्ट्र की तरह आंखें मूंदे बैठ गए थे। और ये धृतराष्ट्र 25 साल के भी थे और 75 साल के भी। यहां तक कि 9 मार्च को एक्जिट पोल में बीजेपी की जय-जय होते ही उन्होंने पोल का भी मखौल उड़ाना शुरू कर दिया, उसकी बखियां उधेड़ डालीं। यानी “मेरे मन की नहीं, ऐसी बात क्यों कही?” लेकिन आखिर में उनके साथ वही हुआ है, जो 2014 में हुआ था।
2014 में तमाम बड़े हिंदी/अंग्रेजी अखबारों के रिपोर्टर यूपी जीत रहे थे और लौटकर लिख रहे थे कि बीजेपी के लिए कुछ नहीं है। डेस्क पर होने के बावजूद यूपी/बिहार/हरियाणा में अपने सू़त्रों से बात कर मैं दफ्तर में लगातार कह रहा था कि बीजेपी जबरदस्त तरीके से जीत रही है (जिस पर कई लोग प्रचारक कहकर मखौल भी उड़ा रहे थे), लेकिन 19 मई को हंसने का आखिरी मौका मुझे मिला।
इस बार भी मैंने अपने जानने वालों को यूपी में बीजेपी के लिए 200+ की बात कही थी और अपना मखौल उड़वाया था। लेकिन आज एक बार फिर मुझे ही हंसने का मौका मिल रहा है। पंजाब में मैं गलत साबित हो रहा हूं, जहां मैंने कांग्रेस को अव्वल बताया था, लेकिन आम आदमी पार्टी की ऐसी दुर्गति नहीं सोची थी। वहां आम आदमी पार्टी तीसरे नंबर पर आने के लिए बीजेपी+ से होड़ कर रही है।
खैर, यहां मुद्दा यह है कि पत्रकार दोनों मौकों पर गलत साबित क्यों हुए? हालांकि बिहार में वे सही साबित हुए, जहां बीजेपी के हारने की बात वे कह रहे थे और मैं बीजेपी के जीतने की नहीं, लेकिन पहले से बेहतर करने की बात कह रहा था।
गौर करेंगे तो देखेंगे कि वे बिहार में सही साबित नहीं हुए। असल में उनकी एक ही लीक थी - “बीजेपी हारेगी और हारेगी।” बिहार में यह लीक सही साबित हुई, यह इत्तफाक ही रहा।
इसके दो मतलब हैं - पहला, रिपोर्टर हवा को भांपने में नाकाम रहे यानी पत्रकार के तौर पर उन्हें वह नहीं आता, जो आना चाहिए। दूसरा, उन्हें बीजेपी की जीत नजर आ रही थी, लेकिन जानबूझकर वे उसे नकारते रहे।
पहला मतलब है तो उन्हें मेहनत करने की, खुद को मांझने की जरूरत है ताकि वे नब्ज भांपने लायक धार अपने भीतर ला सकें। लेकिन दूसरा मतलब है तो वह खतरनाक है। क्या खतरा है, इसकी बात आगे करेंगे। पहले यह देखते हैं कि उनके नकारने की वजहें क्या हो सकती हैं? दो वजहें हो सकती हैं - पहली, बीजेपी के विरोधी खेमे से उन्हें हवा बदलने, वोटरों के मन में भ्रम पैदा करने का ठेका मिला था। दूसरी, चूंकि वे स्वयं धुर बीजेपी विरोधी हैं, इसलिए सब कुछ समझकर भी सच लिखने को तैयार नहीं थे (यह सच हो भी सकता है क्योंकि 2014 में कई पत्रकारों ने निजी बातचीत में मुझसे बीजेपी की हवा होने की बात कबूली थी, लेकिन अपनी रिपोर्ट में या सोशल मीडिया पर वह इसके उलट लिख रहे थे)।
पहली वजह है तो हम और आप कुछ नहीं कर सकते क्योंकि बिक कोई भी सकता है, कभी भी सकता है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी के लिए पत्रकारों का मेहनत करना और उसकी जीत के बाद उन्हें रेवड़ी मिलना हमें-आप को सभी को पता है। ऐसे पत्रकार दलाल कहलाते हैं और दलाल किसी भी पेशे में हो सकते हैं।
लेकिन अगर दूसरी वजह है और महज वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण रिपोर्टर जनता को सच बताने से कतरा रहा है। तो स्थिति अधिक खतरनाक है क्योंकि इसका मतलब है कि आप पत्रकारिता करने नहीं आए हैं बल्कि विचारधारा का प्रचार करने आए हैं। इसका मतलब है कि राजनीति ही नहीं, बाकी मामलों में भी आप विचारधारा को आगे रखेंगे, देश की कीमत पर भी। सैफुल्ला, साईबाबा, गुरमेहर मामलों में हम ऐसा देख भी रहे हैं। भक्त वे नहीं हैं
ऐसा है तो शर्म कीजिए खुद पर। कम से कम उस पत्रकारिता को तो छोड़ दीजिए, जिस पर आम लोग अब भी भरोसा करते हैं। उसकी विश्वसनीयता में पलीता मत लगाइए। वरना उसका खमियाजा उस पत्रकारिता को भुगतना पड़ेगा, जिसमें कुछ युवा शिद्दत और जज्बे के साथ आते हैं।